https://youtu.be/AOaImk2nHYg?si=TBlvzQ0yAfdfInZb

दोस्तों नटराज और अप्सरा पेंसिल्स हम सभी के बचपन की साथी रही है लेकिन क्या आपको पता है जब तीन दोस्तों ने इस कंपनी की शुरुआत की थी तब लोग हंसते थे उन्हें कहा जाता था पेंसिल बनाकर करोड़पति बनोगे क्या लेकिन यही पेंसिल बनाने वाली कंपनी आज एक दो करोड़ नहीं बल्कि कई स करोड़ की अंपायर बन चुकी है तो चलिए आज जानते हैं कि बीजे सांगवी और उनके दोस्तों ने कैसे हर मुश्किल को पार कर हिंदुस्तान पेंसिल्स को भारत के टॉप स्टेशनरी ब्रांड्स मेंला खड़ा किया साल था 1950 का इंडिया अभी-अभी आजाद हुआ था और यहां पढ़ाई का सपना देखने वाले लाखों बच्चों के पास एक अच्छी पेंसिल तक नहीं थी हां कुछ अमीर बच्चे महंगी विदेशी पेंसिल्स खरीद सकते थे लेकिन बाकी उनके लिए कुछ गिनी चुनी लोकल पेंसिल ही थी जो कमजोर थी जल्दी टूट जाती और जिनसे लिखते टाइम हाथ काला हो जाता था असल में इंडिया के अंदर अच्छी पेंसिल्स बनती ही नहीं थी अगर किसी को क्वालिटी पेंसिल चाहिए होती थी तो उसे इंग्लैंड जर्मनी या फिर जापान की महंगी इंपोर्टेड पेंसिल्स खरीदनी पड़ती थी उस टाइम एडब्ल्यू फेबर कास्टल मित्सुबिशी पेंसिल और स्टेडलर जैसी विदेशी कंपनियां ही इंडियन मार्केट पर राज कर रही थी लेकिन प्रॉब्लम यह थी कि एक कॉमन मिडिल क्लास आदमी के लिए इतनी महंगी पेंसिल खरीद पाना ऑलमोस्ट इंपॉसिबल था इसीलिए बच्चे नरकट की कलम और दबात की स्याही से लिखा करते थे और अगर किसी बच्चे के पास लकड़ी की पेंसिल आ जाए तो फिर वो अपने दोस्तों के बीच एकदम वीआईपी बन जाता लेकिन फिर एंट्री हुई बीजे सांगवी उर्फ बाबू भाई की जो कि इन्हीं हालातों को एक्सपीरियंस करते हुए बड़े हुए थे बीजे सांगवी पढ़ने में तो काफी तेज थे लेकिन फाइनेंशियल प्रॉब्लम्स ने उनका आगे का रास्ता रोक दिया उन्होंने जैसे-तैसे हाई स्कूल तो पूरा कर लिया लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए पैसा नहीं था इसीलिए पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और उनके इंजीनियरिंग का सपना अधूरा ही रह गया कुछ इसी तरह से समय बीतता गया और जब बाबू भाई थोड़े बड़े हुए तो उन्होंने देखा कि गरीब बच्चों के पास एक मामूली प सल तक नहीं है और फिर यह देखकर उन्होंने ठान लिया कि बच्चों की इस प्रॉब्लम को वह खत्म करके ही रहेंगे अब भले ही कैमलिन जैसी कुछ देशी कंपनीज ने इंडिया में पेंसिल मैन्युफैक्चरिंग शुरू कर दी थी लेकिन क्वालिटी वाइज वो फॉरेन ब्रांड के जितना स्मूथ और स्ट्रांग नहीं थे और दोस्तों प्रॉब्लम तो यहां तब और भी ज्यादा बढ़ जाती थी जब उस समय इंडियन मार्केट में मेड इन इंडिया का मतलब ही लो क्वालिटी माना जाता था लोग इंडियन प्रोडक्ट्स पर भरोसा ही नहीं करते थे हर किसी को बस फॉरेन ब्रांड चाहिए होता था लेकिन 1950 के एंड तक भारत में एक बड़ा बदलाव आने लगा सरकार ने विदेशी इंपोर्ट्स पर डिपेंडेंसी को कम करने के लिए स्वदेशी इंडस्ट्रीज को प्रमोट करना शुरू कर दिया और फिर यहीं से इंडियन पेंसिल इंडस्ट्री का भी टर्निंग पॉइंट आया यही वह समय था जब बीजे सांगवी ने अपने दो करीबी दोस्तों रामनाथ मेहरा और मनसुखानी के साथ मिलकर खुद पेंसिल बनाने का फैसला लिया लेकिन दोस्तों पेंसिल बनाना इतना आसान काम नहीं था प्रॉब्लम यह थी कि उस जमाने में पेंसिल मैन्युफैक्चरिंग टेक्नॉलॉजी सिर्फ कुछ गिनी चुनी फॉरेन कंपनीज के पास में ही थी अब इन तीनों दोस्तों के पास में नर तो बहुत था लेकिन नॉलेज नहीं इसीलिए तीनों दोस्त जर्मनी चले गए और वहां पेंसिल मैन्युफैक्चरिंग की बारीकियां सीखी उन्होंने देखा कि वहां की बेस्ट क्वालिटी पेंसिल्स कैसे बनाई जाती है किस तरह के रॉ मटेरियल का इस्तेमाल होता है और मशीनस कैसे काम करती हैं लेकिन दोस्तों पेंसिल बनाने के लिए सिर्फ फोन कंपनीज की टेक्निक सीख लेना ही काफी नहीं था सबसे बड़ा चैलेंज था कि रॉ मटेरियल कैसे जुटाए जाए क्योंकि एक बेहतरीन पेंसिल बनाने के लिए दो सबसे जरूरी मटेरियल होते हैं पहला हाई क्वालिटी वुड जो हल्की मजबूत और टिकाऊ हो और जिसे आसानी से शार्प किया जा सके इसके लिए सीडर वुड यानी कि देवदार की लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता था जो कि ज्यादातर फॉरेन कंट्रीज में ही पाई जाती थी लेकिन प्रॉब्लम यह थी कि इसे इंपोर्ट करना बेहद महंगा था और कुछ इसी तरह से दूसरा सबसे जरूरी मटेरियल था ग्रेफाइट कोर यानी एक ऐसी लीड जो कि ना तो बहुत ज्यादा सॉफ्ट हो और ना ही बहुत हार्ड यानी जो लिखने पर ना तो जल्दी घिसे और ना ही इतनी सख्त हो कि कागज पर लिखते टाइम दबाव डालना पड़े एक्चुअली ग्रेफाइट कोर को सही बैलेंस में बनाने के लिए कार्बन और क्ले के एकदम सटीक मिक्सचर की जरूरत होती थी लेकिन यहां सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि इंडिया में ना तो उस क्वालिटी की लकड़ी मिलती थी और ना ही प्योर ग्रेफाइट ऐसे में जो लोकल पेंसिल कंपनीज थी उन्हें यह दोनों ही चीजें इंपोर्ट करनी पड़ती थी जिनसे उनका प्रोडक्शन कॉस्ट बहुत ज्यादा बढ़ जाता था यही वजह थी कि ज्यादातर लोग इस बिजनेस में घुसने की हिम्मत ही नहीं करते थे लेकिन बीजे सांगवी और उनके दोस्तों ने ठान लिया कि अगर भारत में रिसोर्सेस अवेलेबल नहीं है तो फिर हम अपना रास्ता खुद बनाएंगे हालांकि यह काम इतना आसान नहीं था इसमें सबसे बड़ा चैलेंज था लकड़ी का अरेंजमेंट करना अब जो सीडर वोट था वो बेसिकली अमेरिका से इंपोर्ट होकर आता था यही वजह था कि उसे यूज करना बहुत महंगा पड़ता इसीलिए तीनों दोस्तों ने इंडिया में ही एक बेहतर अल्टरनेटिव डटने का फैसला लिया और फिर वो कई राज्यों के जंगलों में महीनों तक घूमे और सैंपल्स को लगातार टेस्ट किया बार-बार फेल हुए लेकिन फिर भी पीछे नहीं हटे और फिर आखिरकार एक ऐसी लकड़ी का सोर्स मिला जो कि इंपोर्टेड सीडर वुड के जितना ही स्ट्रांग और टिकाऊ था असल में इस लकड़ी का नाम था पॉपुलर वुड यानी कि चिनार की लकड़ी यह लकड़ी हल्की भी थी और आसानी से शार्प हो सकती थी यानी कि पेंसिल बनाने के लिए बिल्कुल परफेक्ट लेकिन अभी भी ग्रेफाइट कोर को डेवलप करने की चुनौती तो बाकी ही थी इसका सलूशन निकालने के लिए उन्होंने लोकल मैन्युफैक्चरर्स और रिसर्चस के साथ मिलकर एक नया फार्मूला डेवलप किया और फिर महीनों की मेहनत के बाद एक ऐसा ग्रेफाइट तैयार हुआ जो ना सिर्फ स्मूथ था बल्कि ड्यूरेबल भी यानी कि अब उनके पास लकड़ी थी और ग्रेफाइट भी लेकिन एक और बड़ा चैलेंज अब भी था कि इसे बनाने वाली मशीन कहां से लाएं क्योंकि उनके पास इतने पैसे ही नहीं थे कि विदेश से नई मशीन इंपोर्ट कर सकें इसीलिए उन्होंने लोकल इंजीनियर्स और कारपेंटर से बात करके भारत में ही मशीनरी को तैयार करवाने का फैसला लिया वह अलग-अलग वर्कशॉप में गए विदेशी मशीनस के वर्किंग्स को समझने की कोशिश की दिन-रात एक्सपेरिमेंट किया और फिर छोटे-छोटे पार्ट्स को इधर-उधर से कलेक्ट करके एक ऐसी मशीन तैयार की जो कि मिनिमम कॉस्ट में मैक्सिमम क्वालिटी की पेंसिल्स बना सकती थी हालांकि इस मशीन को जुगाड़ टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर बनाया गया था इसीलिए इसकी स्पीड बहुत ज्यादा स्लो थी और यह मशीन हमेशा खराब हो जाती थी और दोस्तों बीजे सांगवी इतने परेशान हो गए थे कि पैसों की तंगी लगातार मेहनत और मशीनों के साथ दिन-रात जूझना इस सबका असर उनकी मेंटल हेल्थ पर ऐसा पड़ा कि बिना नींद की गोली लिए एक रात सोना भी मुश्किल हो गया था लेकिन वह जानते थे कि अगर यहां हार मान ली ना तो सब कुछ खत्म हो जाएगा आखिरकार मशीनस में कई सारे एडजस्टमेंट और अपग्रेड्स करने के बाद से वह पहले से काफी तेज रफ्तार से पेंसिल्स बनाने लगे और फिर इसी कामयाबी को देखते हुए साल 1958 में हिंदुस्तान पेंसिल्स लिमिटे की नीव रखी गई और फिर उसी साल लॉन्च हुई नटराज 621 एब पेंसिल जो ना सिर्फ इंपोर्टेड ब्रांड्स की जितना बेहतरीन थी बल्कि इंडियन वेदर कंडीशंस के हिसाब से और भी ज्यादा टिकाऊ थी कंपनी को पता था कि अगर इंडियन मार्केट में सरवाइव करना है तो सबसे पहले उन्हें लोगों के बजट के अकॉर्डिंग ही प्रोडक्ट बनाना होगा इसीलिए उन्होंने अपनी पेंसिल्स को काफी सस्ते प्राइस पर मार्केट में उतारा लेकिन यहां प्रॉब्लम यह थी कि कस्टमर्स फिर भी इसे खरीदने को तैयार नहीं थे क्योंकि जैसा कि हमने आपको पहले भी बताया कि उस टाइम पर मेड इन इंडिया प्रोडक्ट्स को लेकर हम इंडियंस के मन में खराब क्वालिटी का परसेप्शन बना हुआ था इसी वजह से दुकानदार भी स्वदेशी सामान को अपने दुकान में रखने से कतराते थे ऐसे में कंपनी के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी लोगों का भरोसा जीतना असल में बीजे सांगवी और उनके दोस्तों को पता था कि इस पेंसिल को सिर्फ लोगों तक पहुंचाने की देरी है क्योंकि यूज करने के बाद से तो वो खुद ही इसकी क्वालिटी को पहचान लेंगे इसीलिए उन्होंने सबसे पहले अपना डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क मजबूत करने पर फोकस किया बड़ी-बड़ी दुकानों की बजाय छोटे-छोटे ही स्टेशनरी स्टोर्स को टारगेट किया और शॉपकीपर्स को कन्वेंस करने लगे कि वह उनकी पेंसिल्स भी बेचना शुरू करें लेकिन दिक्कत यह थी कि शॉपकीपर्स पहले से ही इंपोर्टेड ब्रांड्स बेच रहे थे और उन्हें लग रहा था कि और इंडियन ब्रांड्स की तरह यह नई इंडियन पेंसिल भी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाएगी और फिर जब इस स्ट्रेटेजी से कुछ खास सक्सेस नहीं मिली तो उन्होंने एक नया प्लान बनाया जो था सीधे स्टूडेंट्स तक पहुंचना अब उन्होंने स्कूल्स और कॉलेजेस में नटराज पेंसिल्स के कुछ फ्री सैंपल्स बांटने शुरू कर दिए और फिर जैसे ही स्टूडेंट्स ने इसे आजमाया उन्हें तुरंत फर्क महसूस हुआ ग्रेफाइट इतना स्मूथ और डार्क था कि लिखावट बोल्ड और क्रिस्पी दिखती थी साथ ही इसकी लीड भी इंपोर्टेड पेंसिल से कहीं ज्यादा मजबूत थी और सबसे बड़ी बात उस जमाने में पेंसिल्स के साथ दिए जाने वाले इरेजर्स बहुत ज्यादा डस्ट छोड़ते थे लेकिन नटराज 621 एब के साथ मिलने वाले इरेजर इंडस्ट्री था इन सब खूबियों के ही बदौलत देखते ही देखते स्टूडेंट्स के साथ-साथ ऑफिस एंप्लॉयज भी प्रोजेक्ट और डॉ��्यूमेंट के लिए नटराज पेंसिल्स का इस्तेमाल करने लगे 1970 आते-आते नटराज 621 एब भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाली पेंसिल बन चुकी थी और हिंदुस्तान पेंसिल्स लिमिटेड ने इंडियन मार्केट में अपनी स्ट्रांग प्रेजेंस बना ली थी लेकिन दोस्तों तब तक एक नया चैलेंज उनके सामने आ खड़ा हुआ था कंपनी ने महसूस किया कि सिर्फ स्टूडेंट और ऑफिस वर्कर्स के लिए ही नहीं बल्कि प्रोफेशनल आर्टिस्ट डिजाइनर्स और आर्किटेक्ट के लिए भी एक हाई क्वालिटी पेंसिल होनी चाहिए एक ऐसी पेंसिल जो नटराज से भी ज्यादा स्मूथ डार्क और ग्रिप करने में ज्यादा कंफर्टेबल हो इसी जरूरत को ही पूरा करने के लिए 1970 में हिंदुस्तान पेंसिल्स लिमिटेड ने ही अप्सरा ब्रांड को लॉन्च किया बेसिकली अप्सरा की लीड ज्यादा डार्क और स्मूथ थी और इसका खास फार्मूला इसे स्केचिंग और आर्टवर्क के लिए परफेक्ट बनाता था ऐसे में धीरे-धीरे अप्सरा ने प्रोफेशन आर्टिस्ट और डिजाइनर्स के बीच में अपनी जगह बना ली इसी दौरान हिंदुस्तान पेंसिल्स ने भारत के बाहर भी अपने प्रोडक्ट को एक्सपोर्ट करने का फैसला किया और फिर आने वाले कुछ ही सालों में एशिया मिडिल ईस्ट अफ्रीका और यूरोप के बाजारों में नटराज और अप्सरा पेंसिल्स एक्सपोर्ट होने लगी इस तरह एक देसी इंडियन ब्रांड अब ग्लोबल स्टेज पर अपनी पहचान बना रहा था लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ जिसने हिंदुस्तान पेंसिल्स के लिए बाहर नहीं बल्कि अपने ही देश में सरवाइव करना मुश्किल बना दिया एक्चुअली 1991 में इंडियन गवर्नमेंट ने इकोनॉमिक लिबरलाइजेशन की शुरुआत की यानी अब कोई भी फॉरेन कंपनी भारत में आकर अपनी फैक्ट्री सेटअप कर सकती थी और इसका असर इंडियन स्टेशनरी मार्केट पर भी पड़ा कई बड़े-बड़े इंटरनेशनल ब्रांड्स ने इस मौके का फायदा उठाया और इंडियन मार्केट में एंट्री ले ली अब तक जिस मार्केट पर हिंदुस्तान पेंसिल्स का राज था वहां फॉरेन कंपटीशन बढ़ने लगा और कंपनी को अब डर सताने लगा कि कहीं यह विदेशी ब्रांड्स उसे पीछे ना छोड़ दें लेकिन उन्होंने इस चुनौती को एक नए मौके की तरह देखा और एक बोल स्ट्रेटजी बनाई अब उनकी रणनीति यह थी कि वह सिर्फ पेंसिल्स तक ही सीमित नहीं रहेंगे बल्कि वो इंडियन कस्टमर्स की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए स्टेशनरी इंडस्ट्री में भी इनोवेशंस करेंगे इसी दौरान उन्होंने डस्ट फ्री इरेजर लॉन्च किया जिससे इरेज करने के बाद से एक्स्ट्रा मेस नहीं बचता था साथ ही शार्पनर्स को भी अपग्रेड किया ताकि पेंसिल्स के नोक ज्यादा शार्प हो और बार-बार ना टूटे इतना ही नहीं उन्होंने बाल पेंस जेल पेंस कलर पेंसिल्स और क्रियोस यानी कि जिन्हें हम मोम के कलर बोलते थे वह भी मार्केट में उतारे इस तरह से अब हिंदुस्तान पेंसिल सिर्फ पेंसिल ब्रांड नहीं बल्कि स्टेशनरी का एक बड़ा नाम बन चुका था 1990 में हिंदुस्तान पेंसिल्स ने अपने ब्रांड को और भी मजबूत करने के लिए टेलीविजन और प्रिंट मीडिया का भी सहारा लिया क्योंकि उस दौर में लोगों पर टीवी एड्स का बहुत गहरा असर होता था हर घर में बच्चे और उनके माता-पिता एक साथ बैठकर टीवी देखा करते थे और कंपनी ने भी इस मौके को पहचानते हुए कुछ ऐसे ऐड कैंपेन लॉन्च किए जो कि आज भी लोगों की यादों में बसे हुए हैं जैसे कि द विनिंग रेस ऐड में दिखाया गया कि पेंसिल के रेस में जहां बाकी ब्रांड की पेंसिल्स के लिए टूट जाती है वहीं नटराज पेंसिल इस रेस में नंबर वन आती है ची की तरफ बढ़ती हुई नटराज की पेंसिल और ट चैंपियन ल कुछ इसी तरह से कंपनी ने चलती ही जाए नाम का एक ऐड कैंपेन भी लॉन्च किया जो कि उस समय काफी पॉपुलर रहा और कंपनी को इसका बहुत फायदा भी मिला नटराज पेंसिल चलती ही जाए इसके बाद से अप्सरा पेंसिल्स के लिए एक अलग स्ट्रेटेजी बनाई गई एक्स्ट्रा डार्क एक्स्ट्रा स्मार्ट टैग लाइन के साथ एक ऐड लंच किया गया जिसमें स्टूडेंट्स पेंसिल को ड्रम स्टिक की तरह यूज करके उसकी मजबूती दिखा रहे थे अपसरा एब्सलूट एक्स्ट्रा डार्क एक्स्ट्रा स्ट्रांग और दोस्तों इन सभी एडवरटाइजमेंट्स ने नटराज और अप्सरा को घर-घर में पॉपुलर बना दिया लेकिन दोस्तों साल 2000 आते-आते कंपटीशन और भी ज्यादा बढ़ने लगा क्योंकि अब मार्केट में सिर्फ फॉरेन ब्रांड ही नहीं बल्कि इंडियन ब्रांड्स भी मजबूत हो रहे थे कैमलिन और डम्स जैसी कंपनियां तेजी से अपनी पकड़ बना रही थी और यह हिंदुस्तान पेंसिल्स के लिए एक नया चैलेंज था अब सिर्फ अच्छी पेंसिल्स बनाना ही काफी नहीं था बल्कि कस्टमर्स को समझाना भी जरूरी था था कि उनके प्रोडक्ट्स आखिर क्यों सबसे बेहतर हैं यही सोचकर कंपनी ने अपनी मार्केटिंग स्ट्रेटेजी बदल दी क्योंकि पहले स्टूडेंट्स ी उनके मेन टारगेटेड ऑडियंस थे लेकिन अब उन्होंने पेरेंट्स को भी टारगेट करना शुरू कर दिया खासकर ऐसे पेरेंट्स जो कि अपने बच्चों के लिए अच्छी और अफोर्डेबल स्टेशनरी चाहते थे इसी के साथ उन्होंने एग्जाम देने वाले स्टूडेंट्स को ध्यान में रखते हुए अप्सरा एग्जाम पेंसिल लॉन्च की इसमें स्मूथ और डार्क ग्रेफाइट था जो कि राइटिंग को ज्यादा क्लीन और रीडेबल बनाता था लेकिन दोस्तों इस पेंसिल का जो सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक था वह था इसका एडवर्टाइज कैंपेन विज्ञापनों में दिखाया गया कि अगर बच्चा अप्सरा एग्जाम पेंसिल से लिखता है तो उसकी हैंडराइटिंग इतनी साफ होती है कि टीचर उसे एक्स्ट्रा फाइव नंबर्स देता है ऐसे में यह कैंपेन बेहद पॉपुलर हुआ और इसकी वजह से कंपनी की सेल्स में जबरदस्त उछाल देखने को मिला दोस्तों सब कुछ तो अब तक बहुत अच्छा चल रहा था लेकिन 2013 में कुछ ऐसा विवाद हुआ जिसने कंपनी को मुश्किल में डाल दिया एक्चुअली बेंगलुरु में एक लॉ स्टूडेंट चिरायू जैन ने नटराज की पैरेंट कंपनी हिंदुस्तान पेंसिल्स लिमिटेड के खिलाफ में कंप्लेन दर्ज की जैन का कहना था कि कंपनी के क्रेन सेट में स्किन कलर बहुत हल्का यानी कि गोरे स्किन टोन जैसा था लेकिन उनकी खुद की स्किन टोन काफी डार्क थी और यह कलर उससे मैच नहीं करता था उन्होंने आरोप लगाया कि इससे रंग भेद को बढ़ावा मिलता है और यह इशारा करता है कि फेयर स्किन ही नॉर्मल या आइडियल है और दोस्तों इस इशू को और भी ज्यादा चर्चा तब मिली जब जब एंटी डिस्क्रिमिनेशन एक्टिविस्ट ग्रुप ब्राउन एंड प्राउड ने इसे एक अभियान का रूप दे दिया सोशल मीडिया पर नॉट माय स्किन कलर जैसे हैग ट्रेंड करने लगे और लोगों को इनकरेज किया गया कि वो अपने रियल स्किन टोन को प्राउडली एक्सेप्ट करें और फिर जब यह कैंपेन बढ़ता गया तो फिर हिंदुस्तान पेंसिल्स ने भी फाइनली एक्शन लिया और उन्होंने जो क्रेन सेट में स्किन कलर था उसका नाम बदलकर पीच कलर कर दिया इसके बाद से लोगों ने इस बदलाव को पॉजिटिव तरीके से लिया और फिर ये विवाद यहीं पर थम गया फिलहाल अगर आज की बात करें तो हिंदुस्तान पेंसिल्स भारत के ब्रांडेड स्टेशनरी मार्केट में करीब 65 पर मार्केट शेयर होल्ड करता है कंपनी का कहना है कि वह हर दिन 8 मिलियन पेंसिल्स बनाते हैं 1.5 मिलियन शार्पनर्स 2.5 मिलियन इरेजर और 1 मिलियन पेंस मैन्युफैक्चर करते हैं अब दोस्तों अगर देखा जाए तो एक सिंपल सी पेंसिल कंपनी से भारत का सबसे बड़ा स्टेशनरी ब्रांड बनने तक का यह सफर आसान नहीं था लेकिन कंपनी ने अपने बेहतरीन ऐड कैंपेन और लगातार इनोवेशन से इसे मुमकिन कर दिखाया अब चाहे स्कूल हो ऑफिस हो या फिर आर्टिस्ट के टेबल हिंदुस्तान पेंसिल्स हर जगह अपनी पहचान बना चुकी है यही वजह है कि आज भी जब कोई बच्चा पहली पेंसिल खरीदता है तो उसके सामने सबसे पहला नाम नटराज और अप्सरा का ही आता है जो सिर्फ एक ब्रांड नहीं बल्कि हर भारतीय की यादों का हिस्सा बन चुका है

https://youtu.be/hN_T1KokoGQ?si=mEFE6nEeOwf_ljpc 

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